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#mission_postmortem
(सामाजिक बुराइयों का चिर फाड़)

पडेगा हम सभी को अब खुले मैदान मे आना,,
घरों मे बात करने से ये मसले हल नही होंगे,.,!!!

सबसे प्राचीन, ऐतिहासिक, ईमानदारी और मेहनत में अव्वल, संख्या में विशाल कुम्हार प्रजापति समाज आज बहुत सी सामाजिक बुराइयों से ग्रस्त है जिसके कारण समाज की उन्नति व विकास अवरुध्द हो रहा है।
जो समस्याएं मुख्य रूप से समाज में चारों तरफ नजर आ रही है उनमें
1- समाज का असंगठित होना
2- समाज में सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव
3- समाज में शिक्षा के प्रसार व प्रयास की कमी
4- समाज में कुरीतियों एवम रूढ़िवाद का चलन
5- समाज के लोगों को अपने पारम्परिक एवम पैतृक व्यवसाय से घृणा
6- लुप्त होती पारम्परिक माटी कला
7- सामाजिक सङ्गठनों का समाज के लिए कम अपने अस्तित्व व व्यक्तिगत हितों के लिए ज्यादा उपयोग
8- समाज के लोगों में समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व के बोध की कमी
9- समाज के सङ्गठनों द्वारा महिला शक्ति को नजरअंदाज करना
10- बालिका शिक्षा में कमी
11- जातिगत व्यवसाय समयानुकूल व लाभप्रद नही होने से समाज के सामने जीविकोपार्जन हेतु स्वरोजगार की समस्या
12- समाज में राजनैतिक जागरूकता व नेतृत्व का अभाव जिसके कारण राजनीती में उचित प्रतिनिधित्व नही
13- आपसी विश्वास, सौहाद्र व समन्वय की कमी

आदि आदि…

इसके अलावा भी कई स्थानीय समस्याएं हो सकती है जिसे आप कॉमेंट बॉक्स में लिख सकते है

फिर हम करेंगे एक पोस्टमॉर्टेम
One by one
विचार करेंगे कारणों और निवारणों पर

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(सामाजिक बुराइयों का चिर फाड़)

1- समाज की सबसे बड़ी बुराई या कमी है समाज का असंगठित होना।

साथियों

इतिहास उठाकर देखलें या वर्तमान स्थिति पर नजर डालकर देखलें आज तक किसी भी समाज ने कुछ हासिल किया है तो अपने संगठन के बल पर हासिल किया है।
परन्तु बड़े खेद का विषय है कि भारत वर्ष के कोने कोने में फैला हमारा प्रजापति समाज एक पेशा एक जाती होने के बावजूद अलग अलग फिरकों में बन्ट कर असंगठित हो रहा है। जिसके चलते हम किसी भी क्षेत्र में कोई विशेष पहचान नही बना पाये है। समाज में आज शिक्षा का चलन भी कुछ हद तक हुआ है हमारे समाज से हर वर्ष अच्छी तादाद में प्रशासनिक अधिकारी बन रहे है डॉक्टर्स, इंजीनियर्स, आर्चिटेक्टर्स, प्रोफेसर्स आदि बन रहे है तो अच्छी संख्या में उद्योगपति व व्यापारी भी उभर रहे है । इस सबके बावजूद समाज के बिखराव के चलते हम राजनैतिक क्षेत्र में कोई विशेष उपलब्धि हासिल नही कर पा रहे है। कहीं किसी राज्य में इक्का दुक्का विधायक या मंत्री है भी तो या तो दलों की अनुकम्पा पर है और समाज के द्वारा जीता कर भेजा हुआ होने पर भी समाज के असंगठित होने की वजह से वे समाज हित में कुछ विशेष नही कर पा रहे है।
आज पंजाब , हरियाणा, उतरप्रदेश, मध्यप्रदेश , गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र में हमारे समाज की जितनी अच्छी जनसंख्या है वहाँ समाज उतने ही फिरकों मे बंटा हुआ है एक फिरका दूसरे फिरके को अपने से अलग मानता है।
कहीं हम गोला माहर में बंटे है तो कहीं कुम्हार सेणी में , कहीं वाटलिया वरदीया में, कही कहीं बांडा मारू पुरबिया मटेडिया खतेड़िया में।
और कहीं कहीं तो नोबत यहां तक आगयी है कि कुछ भाई अब अपने आप को कुम्हार मानने से ही मना करते हुए अपने नए इतिहास ढुढ़ बैठे है।

जहाँ एक और  ब्राह्मण बनियां समाज अनेक जातियों में बंटे होने के बावजूद कुछ हासिल करने के लिए अपने आप को एक दिखा रहे है वही दूसरी और हम एक होकर अनेक प्रदर्शित कर रहे है।

जरा सोचिए क्या हासिल होगा इससे ?

लड़ना ही है तो संगठित होकर हमारे समाज के हकों के लिए लड़िये।
लड़ना ही है तो समाज के साथ हो रहे अन्याय अत्याचार के खिलाफ लड़िये।
लड़ना ही है तो समाज की राजनीती में भागीदारी के लिए लड़िये।
इससे कुछ हासिल तो होगा।
वरना आपस में लड़कर तो एक दिन अपना अस्तित्व ही खो बैठेंगे।

शिक्षित बने
संगठित बने
समाज के हक के लिए संघर्ष करें।

               

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(सामाजिक बुराइयों का चीर फाड़)

अशिक्षा
हमारे समाज में शिक्षा की कमी एक बहुत बड़ी बुराई है जिसके रहते हमारा समाज हर क्षेत्र में पिछड़ा हुआ है। शिक्षा मनुष्य का असली श्रृंगार है । शारारिक श्रृंगार के लिए हम पैसे से बाजार से बहुत तरह के श्रृंगार प्रसाधन खरीद सकते है पर मनुष्य का बौद्धिक श्रृंगार शिक्षा से ही सम्भव है। इसी लिए अनपढ़ व्यक्ति को ढोर (पशु) की संज्ञा दी गयी है। शिक्षा ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है। शिक्षा से ही मनुष्य का रहन सहन बोली भाषा व्यवहार बदलता व सुसज्जित होता है।
 समाज में ज्यादा से ज्यादा शिक्षा का प्रसार हो इसके लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं, भामाशाहों एवम सामाजिक सङ्गठनों को इसे प्राथमिकता देकर इसपर कार्य करने की जरूरत है।
कैसे हम समाज को शिक्षित करने में योगदान कर सकते है??
 आज सामान्यतया किसी भी सामाजिक कार्य के लिये हम किसी से बात करे तो यही जबाब मिलेगा मैं क्या कर सकता हूँ मेरे पास इतना धन नही है या समय नही है कि मैं किसी की मदद कर सकूं। और इस एक उतर से हम सारे सामाजिक कर्तव्यों से अपने आप को मुक्त कर लेते है । हर व्यक्ति यही सोच रखे तो किसके भरोसे समाज का उत्थान होगा। समाज के गिने चुने भामाशाहों के भरोसे तो समाज के सारे कार्य सम्भव नही है। हालांकि वे अपनी और से हर सामाजिक कार्य में अपना सहयोग कर रहे है पर सब कुछ वे ही तो नही कर सकते। मंदिर बनाना हो, विवाह भवन बनाना हो, छात्रावास बनाना हो, सामूहिक विवाह या अन्य आयोजन करना हो सारी जिम्मेदारी उन्ही की तो नही है। यह हर समाजी की यथाशक्ति जिम्मेदारी बनती है। और ऐसा अभी हो भी रहा है झारखण्ड के बाबा बैजनाथ के धाम देवघर में हीरोज टीम  Prajapati Heros Bhawan Deoghar के प्रयास से छोटी छोटी आपसी मदद से समाज का  5 मंजिला भवन मय छात्रावास बन रहा है। जिसमे किसी बड़ी रकम का कोई विशेष सहयोग किसी का नही है ।
 कहने का आशय है हम सब मिलकर छोटे छोटे सहयोग करें तो हम समाज के हर बच्चे को शिक्षा दिलवा सकते है।
 आज समाज में लगभग हर गाँव शहर में प्रतिभा सम्मान समारोह होते है। जिनमे समाज अपनी हैसियत से भव्य करने की कोशिष करता है। वहाँ होता क्या है? लाखों रूपये खर्च कर आयोजकों एवम नेताओं का सम्मान , पुरे समाज का भोजन और प्रतिभाओं को एक फ्रेम्ड कागज का टुकड़ा(प्रमाण पत्र) या माला।
 क्या हम यह आडम्बर नही करके उन्ही लाखों रुपयों से उन में से कई जरूरत मन्द बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था नही कर सकते।
 आज देश भर में कई जगह लाखों तो कई जगह करोड़ों रूपये खर्च करके भव्य मंदिरों का निर्माण कर रहे है। क्या उन्ही जगहों पर उन्ही रुपयों से हम स्कूल या छात्रावास का निर्माण कर उसी में सुन्दर और छोटा सा मंदिर नही बना सकते। क्या भव्यता में ही देवी देवता निवास करते है?
हमारे समाज के शिक्षक अपनी नोकरी की मजबूरी में हर सरकारी कार्य करते है  उसी तरह वे स्वेच्छिक रूप से साथ में समाज के हर बच्चे को स्कूल पहुंचाने का कार्य नही कर सकते?
  हमारे समाज के कई युवक युवतियां अपना शीक्षण समाप्त कर जॉब के इंतजार में फालतू बैठे रहते है ।
क्या वे जॉब लगने तक फालतू बैठे रहने के बदले कुछ लोग मिलकर समाज के बच्चों के लिए कोचिंग आदि नही चला सकते?
 आजकल हर महिला शिक्षित है। और सिमित परिवारों व आधुनिक मशीनी युग में घरों में इतना कार्य भी नही होने से लगभग सभी के पास अतिरिक्त समय रहता है जिसमे किसी न किसी तरह टाइम पास करती है।
 क्या वे उस खाली समय का सदुपयोग कर अपने समाज के आसपास के यथासम्भव बच्चों को शिक्षा नही दे सकती है।
समाज के सेवानिवृत्त कुछ लोग मिलकर अपने अनुभवों से समाज के युवाओं को प्रतियोगी परीक्षाओं आदि के लिए मार्गदर्शन कर सकते है।
हमारे हीरोज साथी श्री Er  Ramesh Chandra जी गाज़ियाबाद समाज के कुछ प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मिलकर यह कार्य सेवारत रहते हुए भी बखूबी कर रहे है
  इसी प्रकार हर व्यक्ति अपनी छोटी से छोटी बचत या योगदान से अपनी शक्तिनुसार समाज के किसी बच्चे की शीक्षण में मदद कर सकते है।
  इन् सब के लिए जरूरत सिर्फ सकारात्मक सोच पैदा करने व इच्छाशक्ति होने की है।
  सामाजिक योगदान के लिए धन से ज्यादा महत्व हमारी इच्छाशक्ति व सामाजिक भावना का है।
 करके देखें , अच्छा लगेगा।

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(सामाजिक बुराइयों का चीर फाड़)

इसके पहले हमने बात की समाज के असंगठित होने, सर्वमान्य नेतृत्व के आभाव व समाज में शिक्षा की कमी के बारे में। आज हम एक और सामाजिक बुराई का पोस्टमॉर्टेम करेंगे वह है

समाज में रूढ़िवादिता व आडम्बर का बोलबाला

साथियों
हमारा समाज सदियों शिक्षा अज्ञानता के कारण पिछड़ा रहा जिसकी वजह से हमारा समाज पिढियों से विभिन्न रूढ़ियों में जकड़ा रहा और उन रूढ़ियों के चलते हम और अधिक पिछड़ते चले गए।
हमारा  समाज  रूढ़ियों में पड़कर विभिन्न प्रकार की अनुचित सामाजिक परम्पराओं को ढोता रहा जिनमे प्रमुख है

बाल विवाह

बाल विवाह करने के पीछे अभिभावकों की जो सोच होती थी वो मुख्य रूप से अपनी सन्तान के प्रति जिम्मेदारी से मुक्त होना होती थी। क्योंकि उस समय केरियर के नाम पर तो पुश्तेनी धंधा या खेतीबाड़ी होती थी तो नोकरी आदि पर तो निर्भरता होती नही थी और जितने हाथ उतना काम के चलते बहु का आना भी एक सहयोग की तरह माना जाता था। दूसरी मजबूरी बुजुर्गों का पोते पोतियों का मुँह देखने की जिद होती थी।
उनकी चाहत होती थी की जीते जी वे अपने कुटुंब की बढ़ोतरी देख सकें। इन सब सोचों के चलते बाल विवाह का प्रचलन हुआ। जो सुदूर ग्रामीण अशिक्षित परिवारों में आज भी प्रचलन में है।
बाल विवाह से लड़के व लड़की की शिक्षा पर तो असर होता ही है  शारारिक व मानसिक विकास भी अवरुद्ध होता है और कम उम्र में माँ बनने के नुकसान भी लड़कियों को झेलने पड़ते है। बाल विवाह का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि आज के परिवेश मे ये रिश्ते आगे जा कर बहुधा असफल होते है जिससे बच्चों का भविष्य खराब हो जाता है। क्योंकि बाल विवाह में बच्चों की सहमति तो शामिल होती नही। ऐसी सूरत में वे जब बड़े होते है तो इन रिश्तों को नकार देते हैं।
दूसरा बाल विवाह करने वाले परिवार शिक्षित समृद्ध तो होते नही ऐसी स्थिति में बच्चों पर पारिवारिक जिम्मेदारी आने से न तो उनका शारारिक विकास हो पाता और न उचित काम धंधा होने से आर्थिक विकास भी हो पाता जिससे उनका पिछड़ा पन पीढ़ी दर पीढ़ी बढ़ता जाता है।
 हालाँकि समय के साथ व शिक्षा के प्रचलन से बहुत छोटे बच्चों की शादियों में तो कमी आयी है पर आज भी पूर्ण वयस्क होने से पहले तो हजारों लड़के लड़कियों की शादियां हो रही है जिनकी रोकथाम करने हेतु सामाजिक कार्यकर्ताओं व सङ्गठनों को ग्रामीण क्षेत्रों में सघन जागरूकता अभियान चलाकर बाल विवाह नही करने के लिए समाज को जागरूक करने की जरूरत है।

क्योंकि

तनिक भूल से जीवन भर तक,
दिल का दर्द बहा करता।
सुदृढ़ नींव अगर न हो तो
सुन्दर महल ढहा करता।।

आगे बात करेंगे दूसरी रूढ़ियों व कुरीतियों की

देखते रहे
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(सामाजिक बुराइयों का चीर फाड़)

पिछली पोस्ट में समाज में बाल विवाह के चलन पर बात की । आज बात करते है समाज की बहुत ही विकराल समस्या या बुराई जिसके चलन से आज समाज के कई परिवार पीड़ित है वह है

दहेज प्रथा

दहेज प्रथा एक ऐसी समस्या है जिसे कुछ लोगों ने रूढ़ि के तौर पर अपना रखा है तो कुछ ने आडम्बर के तौर पर। अशिक्षित और गरीब लोग इसे रूढ़ि के कारण ढो रहे है तो शिक्षित और समृद्ध लोग इसे आडम्बर के तौर पर बढ़ावा दे रहे है। पर इस प्रथा को उचित किसी स्थिति में नही ठहराया जा सकता। भला ऐसी प्रथा समाज में कहाँ तक उचित है जिसे अपनाकर भी हम बच्चों को खुशियां नही दे सकते बल्कि बहुत जगह तो ये उनके जीवन को ही संकट में डाल देती है।
 ऐसा कभी नही हुआ कि दहेज से गरीब अमीर हो गया या अमीर ने दहेज से खुशियां खरीद ली हों।
 किसी समय में दहेज प्रथा जब प्रारम्भ हुयी होगी उस समय उन लोगों ने शायद ही सोचा होगा जी एक दिन यह समाज के लिए इतनी विकराल समस्या बन जायेगी कि माताएं बेटी को जन्म देने से भी डरने लगेगी। आज समाज में कन्या भ्रुण हत्या जैसे अमानवीय कृत्य के पीछे यदि कोई कारण है तो यह दहेज प्रथा ही है। हर माँ बाप बेटी सिर्फ इसलिए नही चाहते कि यदि बेटी हुयी तो उम्रभर की कमाई इन दहेज लोभियों को ही अर्पित करनी पड़ेगी और जिसके बाद भी कोई गारंटी नही की बेटी सुखी रह पाएगीं।
 सोचने कि बात यह है कि अमूमन हर घर में सन्तान के रूप में बेटा बेटी दोनों ही होते है। हम बेटे के लिए दहेज की इच्छा रखते है और बेटी को दहेज देने की चिंता में मरे जाते है या देकर मरते (तकलीफ उठाते) है। तो ऐसी प्रथा को हम सब मिलकर ख़तम करने का प्रयास क्यों नही करते।
इसका कारण यह है कि "गाँव करे सो गेली करे"
सब करते है इसलिए हमें भी करना है, पर कब तक इस को ढोते रहेंगे ?
जब कई बहन बेटियों के घर उजड़ जायेंगे और वे आजीवन इस अभिशप्त जीवन को ढोने को मजबूर होती रहेगी।
जब कई बहन बेटियाँ इसके चलते अपनी जीवन लीला समाप्त कर चुकी होंगी।
जब कई दहेज लोभी भेड़िये कितनी ही बहन बेटियों की बलि चढ़ा चुके होंगे ।

“रूढ़ियों को लोग इसलिए मानते हैं, क्योंकि उनके सामने रूढ़ियों को तोड़ने के उदाहरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं।"
 कहीं से तो पहल करनी होगी। किसी को तो पहल करनी होगी।
मुश्किल क्या है जो आप आज ले रहे हो वो कल आपको देना है। फिर क्यों इस लेनदेन की प्रथा को जिंदा रखकर या बढ़ावा देकर अमूल्य जीवन को दुखी बना रहे है ?
 यह सिर्फ चलन की मजबूरी है , आवश्यकता कतई नही। हर घर में जीवनोपयोगी वस्तुएं उपलब्ध होती है बहुधा दहेज में मिलने वाला सामान पहले से हर किसी के घर में उपलब्ध होता है। ज्यादातर तो देखा जाता है कि कईयों को  दहेज में मिला अतिरिक्त सामान रखने हेतु जगह का भी अभाव होता है फिर भी "रावळा तेल पल्ले में चोखा" सोच के तहत भी लोग दहेज लेने से नही चूकते। हालाँकि इस कुप्रथा को सिर्फ लड़के वाले ही जिन्दा नही रखे है बल्कि इसके प्रचलन को बरकरार रखने में कई लड़की वालों का योगदान भी कम नही है। वे भी किसी भी कीमत पर योग्य वर "खरीदना" पसन्द करते है।
  आज जब युवा पढ़ लिखकर योग्य बन कर शादी करते है ऐसी स्थिति में उन्हें अपने से पहल करते हुए अपने अभिभावकों को साफ मना कर देना चाहिए कि हम दहेज रहित शादी करेंगे। लड़कियों को भी चाहिए कि वे अधिक सुख सुविधाओं के चक्कर में "बड़े घर" के दूल्हे की चाहत में माता पिता को बड़ा दहेज देकर शादी की चाह नही रखते हुए सुयोग्य वर के साथ शादी की कामना करें जो आपको जीवन का भौतिक के बदले असली सुख व सुखी गृहस्थी जीवन प्रदान कर सके।
  विवाहों में दहेज व दिखावे के खर्च को नियंत्रित करने के उद्देश्य से आजकल बहुत से राज्यों में समाज के सामूहिक विवाहों का आयोजन बहुत कारगर साबित हो रहा है । गुजरात जैसे राज्य में इन समारोहों के माध्यम से शादीयाँ  करने के मामले में मध्यम श्रेणी तक के परिवार गुरेज नही कर रहे है। वहाँ लगभग हर शहर में समाज में हर साल सामूहिक विवाहों के सफल आयोजन होने लगे है। जो इस कुप्रथा को समाप्त करने में बहुत कारगर साबित हो रहे है।
 इसलिए सभी सामाजिक सङ्गठनों को चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा सामूहिक विवाह समारोहों का आयोजन करें और समाज जनों को चाहिए कि ज्यादा से ज्यादा इन् समारोहों के माध्यम से बच्चों जी शादियाँ संपन्न कर व्यर्थ के ऐसे खर्चो से बचे जो हममें से किसी के लिए उपयोगी नहीं होते।
 बिहार झारखण्ड आदि राज्यों में स्थिति और भी भयंकर है वहां विवाह पूर्व ही लेन देन तय किया जा कर भुगतान करने के पश्चात् ही शादी होती है और उस समय ही दोनों परिवारों में अकसर तक़रार भी हो जाती है फिर भी कटुता के साथ भी पैसे के लेन देन से शादी सम्पन्न तो हो जाती है पर कटुता की नींव पर बने रिश्ते कैसे होंगे इसकी कोई भी कल्पना कर सकता है।
 इसी के मध्यनजर हीरोज ने बिहार में पहली बार इस और एक सार्थक प्रयास करते हुए वहाँ की मुख्य संस्थाओं के साथ मिलकर एक "युवक युवती परिचय सम्मेलन" करना सुनिश्चित किया है जिसमे सफलता मिलती है तो आगे सामूहिक विवाह समारोह भी आयोजित किया जायेगा।
 ऐसे समारोहों का आयोजनों कर हमें समाज से इस दहेज रूपी बुराई का समूल नाश करने का प्रयास करना होगा। जिसमें हर समाजी दृढ संकल्प के साथ आगे आये तो अवश्य सफलता मिलेगी।

जरूरत है पहल करने की,
जरूरत है दृढ इच्छा शक्ति की।

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(सामाजिक बुराइयों का चीर फाड़)

हम बात कर रहे थे समाज में रूढ़िवाद व आडंबरों के तहत अशिक्षा, बाल विवाह एवम दहेजप्रथा जैसी कुप्रथाओं एवम रीती रिवाज की।
उसी को आगे बढ़ाते हुए आज समाज के एक ऐसे चलन या कुप्रथा की बात करेंगे जो एक सभ्य या शिक्षित समाज के माथे पर बदनुमा दाग या कलंक है। और वह है

मृत्यु भोज / तेरहवीं संस्कार या गंगा प्रसादी

साथियों
आज  हम 21 वीं शदी में जी रहे है आज का युग वैज्ञानिक युग कहलाता है। आज हर चीज को हम विज्ञान की कसौटी पर कसते है। खान पान, रहन सहन, व्यापार पेशा और भी सब चीजें। आज हमारा समाज काफी विकसित हुआ है । समाज में शिक्षितों की संख्या बढ़ी है । हमारा जीवन स्तर भी सुधरा है और हम सभ्य समाज का हिस्सा भी है। फिर भी हमारे कुछ कृत्य ऐसे है जिनके चलते
हममें असभ्यता या पशुता झलकती है उनमें से ही एक है  हमारे समाज में विभिन्न नामों से किया जाने वाला मृत्यु पश्चात सामूहिक भोज।
साथियों यह ऐसा भोज है जिसे पशुवत भी नही कहा जा सकता क्योंकि जानवरों में भी साथी बिछुड़ जाने पर वे उस दिन चारा नहीं खाते है। जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव, जवान आदमी की मृत्यु पर हलुवा पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है। इससे बढ़कर निन्दनीय कोई दूसरा कृत्य हो नहीं सकता।
 हमारे किसी भी धर्मग्रन्थ में मृत्युभोज का कहीं भी  वर्णन नही है
हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है। इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार तेरहवीं संस्कार कहाँ से आ टपका।
 कई जगह तो साफ साफ लिखा है कि
’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’
जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिये।
लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो। तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।
 लेकिन जब हम 80-90 वर्ष के बुज़ुर्गों से इस कुरीति के चलन के बारे में पूछते है तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते है। वे बताते है कि उनके जमाने में ऐसा नहीं था। रिश्तेदार ही घर पर मिलने आते थे। उन्हें पड़ोसी भोजन के लिए ले जाया करते थे। सादा भोजन करवा देते थे। मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक कोई भोजन नहीं बनता था। 13 वें दिन कुछ सादे क्रियाकर्म होते थे और ब्राह्मणों एवं घर-परिवार के लोगों का खाना बनता था। शोक तोड़ दिया जाता था। बस।
शास्त्र भी यही कहते हैं। गरुड़ पुराण में बताया गया है कि किसी भी मृत व्यक्ति के घर बारह दिन तक पानी पीना भी हिन्दुओं के लिए वर्जित है।
 तो फिर स्पष्ट है यह जरूर ब्राह्मण बनियों (यह कर्म आधारित है , इसे जाती से जोड़कर नही देखें) की शातिराना चाल है। एक कर्मकांड करवा कर आपसे धन ऐंठना चाहता है तो एक कर्जदार बना कर आपकी जमीन आदि हड़पना चाहता है। मैं खुद अपने पारिवारिक गल्ले किराणे के व्यापार के चलते इसका साक्षी हूँ कि एक सामान्य परिवार के यहां विवाह शादी में जितना राशन नही खपता उससे कई गुणा इन मृत्यु भोजों पर खपता है। मैंने खुद कई ट्रॉलियां भरवाई है। और यह भी देखा है कि वे इसके लीये किसी भी प्रकार से धन की व्यवस्था कर विशाल मृत्यु भोज तो करते ही है। ऐसे ऐसे लोग जिन्हें रूपये पकड़ने और गिनने नही आते पर चूका जरूर देते है।
 
 इसे जायज ठहराने के कुतर्क भी कम रोचक नही है
★जिन माँ बाप ने हमें पैदा किया , पाला पोषा बड़ा किया ,आज उनके लिए कुछ करने का अवसर आया तो यह कुरीति हो गयी?
★उनका कर्ज उतारने का यही तो अवसर है
★हम लोगों के यहाँ खा कर आते है तो जब हमारे यहाँ “काम पड़ता” है तो पीछे कैसे हट सकते है?
★ घर आये मेहमानों को खाना तो खिलाना ही पड़ता है, भूखे थोड़ी भेज सकते है?
आदि
 इन्हे कौन समझाये कि आपको अपने पैदा करने वालों पालन पोषण करने वालों का कर्ज ही चुकाना है तो जीते जी उनकी इच्छाएं पूरी कीजिये। वृद्धावस्था में उनकी खूब सेवा कीजिये। आप समृद्ध है या आपकी श्रद्धा है तो मरणोपरांत उनकी यादगार मैं स्कूल , छात्रावास, प्याऊ या पशुओं के पानी पीने के टैंक बनवाइये या उनमे आर्थिक सहयोग कीजिये अथवा कोई भी सार्वजनिक जनहित के कार्य करवाइये। आपके सगे सम्बन्धियों में ही नही आने वाली पीढ़ियों तक में आपके पूर्वजों का नाम चलेगा। ऐसा हमने कई जगह देखा भी है कि कुछ वंश खत्म होगये पर उनकी बनाई सार्वजनिक इमारतों से वे आज भी अमर है।
 हालाँकि मृत्युभोज को रोकने के लिए 1960 में मृत्युभोज निवारण अधिनियम भी बना है, जिसके तहत सजा व जुर्माने का स्पष्ट प्रावधान है। परिवार एवं पंडित-पुरोहितों को मिलाकर 100 व्यक्तियों तक का भोजन ही कानूनन बन सकता है। इससे बड़े आयोजन पर उस क्षेत्र के सरपंच, ग्राम सेवक, पटवारी व नगर पालिका के अधिशासी अधिकारी की कुर्सी छिन सकती है। लेकिन शासन अभी भी इस पर मौन है। वोटों के लालच में। यहाँ तक कि ऐसे मृत्युभोजों में नेता-अफसर स्वयं भाग भी लेते रहते हैं। फिर किसकी मजाल, जो शिकायत करे।

  यदि आप और हम इस बात से
सहमत हों, तो हम सब आज से ही
संकल्प लें कि हम किसी के मृत्यु भोज को ग्रहण नहीं करंगे। व अपने परिवार जनों को भी ऐसे आयोजन नही करने हेतू तैयार करने की कोशिष करेंगे।
क्योंकि खुद बदले तो जग बदल पाएंगे।

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(सामाजिक बुराइयों का चीर फाड़)

सामाजिक बुराइयों के तहत हम रूढ़ियों , आडम्बर व कुरीतियों की बात कर रहे थे
उसी को आगे बढ़ाते हुए आज बात करते है

समाज की धार्मिक आस्था से जुड़े आडम्बर की

धर्म एक ऐसी चीज है जिसे दुनियाँ का हर व्यक्ति किसी न किसी रूप में मानता है। चाहे वो विकसित हो या अविकसित , समृद्व हो या गरीब। धर्म का अस्तित्व सृष्टि की शुरुआत से ही है।
 भारत एक ऐसा देश है जहां धार्मिक विविधता और धार्मिक सहिष्णुता को कानून तथा समाज,  दोनों द्वारा मान्यता प्रदान की गयी है।
धर्म को मानने वाले भी दो तरह के होते है एक आस्थावश एक आडम्बरपूर्ण। यह भी सार्वभौमिक सत्य है कि इस संसार को चलाने वाली एक अलौकिक शक्ति है फिर चाहे आप उसे किसी भी नाम से पुकारे । इसलिये इस विषय पर कोई भी टिप्पणी हमें बहुत सोच समझ कर करनी चाहिए ताकि किसी की आस्था को ठेस ना लगे। पर आस्था में आडम्बर कभी नही होना चाहिए। आस्था कभी अंध नहीं होनी चाहिए। धर्म की आस्था इतनी भी नही होनी चाहिए कि हम हर चीज चाहे सामाजिक हो या राजनैतिक सब धर्म के पैमाने से ही मापें। धर्म शुद्धतया व्यक्तिगत आस्था का विषय होना चाहिए उसका तनिक भी प्रभाव अन्य लोगों पर नही पड़ना चाहिए।
धर्म के आडम्बर को हम सिर्फ इतने से उदाहरण से समझ सकते है कि हमारे देश में शीक्षण संस्थाएं, चिकित्सालय आदि की संख्या से धार्मिक स्थलों की संख्या अधिक है।
और अनेक मठाधीश व आपके हर दुःख को हर कर कृपा बरसाने वाले बाबाओं की व देवियों की संख्या है वो अलग।
रजस्वला महिला को अछूत मानना, महिलाओं का पति की मृत्यु पर सती होना, निःसंतान व विधवा महिला को अशुभ मानना ये सब धर्म व आस्था के नाम पर अन्धविश्वास ही है।

 पूरी दुनिया के हर धर्म में जो रूढ़िवादी परम्पराएँ प्रचिलित हैं उनमें से ज़्यादातर असमानता को सही ठहराती हैं। यही कारण है कि शासक वर्ग शोषित उत्पीड़ित जनता को गुमराह करने के लिए इन कर्मकाण्डों और रूढ़ियों का प्रचार करते हैं।

 आज देश में वोट धर्म के नाम पर मांगे जाने लगे है। धर्म को एक उद्योग बना दिया गया है।
बड़े बड़े धर्मस्थलों की वाकायदा फिल्में व सीरियल बना कर मार्केटिंग की जाती है उनके चमत्कार प्रसारित कर लोगो को आकर्षित किया जाकर वाकायदा बाजारीकरण कर दिया गया है। यदि सरकार के सारे टेक्स को एक तरफ रख कर धर्म स्थलों के चढ़ावे को दूसरी तरफ रखे तो चढ़ावा टैक्सों से कई गुना ज्यादा होगा। सरकार के और धर्म स्थलों के खजाने की तुलना की जाये तो धर्म स्थलों के खजाने सरकारी खजानों पर भारी पड़ेंगे।
यह सर्वविदित है हम लोग धर्म के मामले में न केवल अतिसंवेदनशील हैं अपितु लगभग धर्मांध की तरह व्यवहार करते हैं। यही वजह है कि कभी प्रतिमाओं द्वारा दूध पीने की तो कभी दीवार, पेड़ और धुएं तक में किसी देवी-देवता की आकृति देखे जाने की अफवाह रुपी दावे के पीछे एक जुनून-सा देखने को मिलता रहा है। आम लोगों की इसी सहिष्णुता व मासूमियत का फायदा उठाते हुए इन तथाकथित धर्मगुरुओं ने अपने-अपने तरीकों व हथकंडों से न केवल आम जनमानस की धार्मिक भावनाओं से खेला बल्कि उनसे दान,  सहयोग राशि और कई अन्य बहानों से उनके खून-पसीने की कमाई का एक हिस्सा भी हड़प जाते हैं। आज के इस भौतिक युग में इन धर्म के व्यवसाइयों ने लोगों को शार्ट कट से अमीर बनाने व सफलता दिलाने का धंधा भी खूब चला रखा है।
 कहने का आशय यह है कि जितना धन हम धर्म स्थलों पर स्वेच्छा से चढ़ाते है या आडम्बरपूर्ण धार्मिक अनुष्ठानों पर खर्च करते है उसका उपयोग हम समाज के स्वास्थ्य व शिक्षा की पूर्ति हेतु साधनों पर खर्च करें तो समाज को किसी धर्म के ठेकेदार के मार्फत सफलता प्राप्त करने के प्रयास की जरूरत ही नही रहेगी। जितना धन हम तीर्थों आदि पर खर्च करते है उतना स्वेच्छिक धन हम उन नदियों के पानी को देशभर में सिंचाई की और मोड़ने पर खर्च करदें तो देश फिर से सोने की चिड़िया बन सकता है।
इसलिए जरूरत है आस्था को ढोंग और आडम्बर से बचाने की व उस पर किये जाने वाले धन की बर्बादी को सही और सामाजिक सरोकार वाली योजनाओं पर खर्च करने की।

रूढ़िवाद छोडो।
विज्ञान अपनाओ।

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#mission_postmortem
(सामाजिक बुराइयों का चीरफाड़)

इससे पहले हम समाज में व्याप्त रूढ़ियों व कुरीतियों के तहत धार्मिक आडम्बर की बात कर रहे थे ।
समाज में व्याप्त इन्ही कुरीतियों व प्रचलनों की कड़ी में आज एक और सबसे बड़ी व शर्मनाक बुराई की बात करेंगे जो है

 समाज में नशे व मांशाहार का बढ़ता प्रचलन

साथियों
 जैसा कि सब जानते है मानव जीवन (जन्म) को इस सृष्टि की सर्वोत्तम योनी माना गया है। सृष्टि के सभी जीव जंतु वनस्पति या प्राणियों में खान- पान, रहन - सहन, बुद्धि - विवेक सब में मनुष्य योनि श्रेष्ठ है। मनुष्य शरीर की रचना भी अन्य प्राणियों, पशु पक्षियों से भिन्न है जिसके चलते उसका खानपान भी उसी के अनुरूप ही उचित है। मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी है और प्रकृति ने इसकी पूर्ति के लिए अथाह वस्तुएं हमें दे रखी है।
तो हमें किसी भी मजबूरी, वो चाहे स्वाद की हो या पौष्टिकता की , उसके लिए मांशाहार की कतई जरूरत नही।

मनुष्य प्रकृति से शाकाहारी है, मांशाहार उसे कतई अनुकुल नही।
पशु भी मानव जैसे प्राणी है पर वे मेवा फल आदि नही खा कर अपना आहार घास फूस या मांशाहार ही लेता है।
यानि जब पशु हमारा आहार नही करते तो हम बुद्धिशाली व विवेकवान होकर पशुओं का आहार क्यों करें।
 मांशाहरी भोजन न तो स्वास्थ्य की दृष्टि से हमारे लिये खाद्य है न सामाजिक , धार्मिक और संस्कृति की दृष्टि से। मांशाहार मनुष्य को तामसिक बनाता है उसी के परिणाम स्वरुप ऐसे खाद्य का सेवन करने वालों का बौद्धिक व सामाजिक विकास नही हो पाता। इसके लिए शायद मुझे कोई उदाहरण पेश करने की जरूरत नही होनी चाहिए। जिधर नजर घुमाएं उधर उदाहरण मिल जायेंगे।

इससे भी बड़ी बुराई है समाज में नशे का प्रचलन

जिसकी चपेट में आये बुजुर्ग प्रौढों को छोड़ भी दें तो 25 से 30 प्रतिशत युवा विभिन्न नशों में लिप्त है जिसमे शराब मुख्य है। और उसका मुख्य कारण है परिवार जनों का इसे हल्के में लेना।
यदि बच्चों को शुरू से ही ऐसे वातावरण से बचा कर रखा जाये और उन्हें किसी भी बुराई से बराबर बचते रहने की सीख दी जाये तो कोई कारण नही की हम उन्हें इस बुराई से बचा ना सकें। क्योंकि जन्म और बचपन से तो सभी अज्ञानी होते है शिक्षा और संस्कार से ही हम सभ्य बनते है।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्चते...

मनुष्य जन्म से तो शूद्र ही होता है, पशु होता है, संस्कारों से उसका दूसरा जन्म होता है, वह उन्नत बनता है।

लगभग 50 वर्ष और उसके आसपास की उम्र वाली पीढ़ी जब 15 से 30-35 वर्ष की थी उस समय को याद करे तो पता चलेगा कि तब बीड़ी सिगरेट तक का सेवन करने की हिममत घर परिवार, नजदीकी रिश्तेदारों और बुजुर्गो के सामने होती ही नहीं थी, शराब या किसी दूसरे नशे का सेवन तो दूर की बात थी । होता यह था कि हमउम्र दोस्तों के बीच जब कभी नशे की इन चीजों के सेवन की बात आती थी तो उसके लिए घर से दूर किसी ऐसी जगह की तलाश होती थी जहां किसी जान पहचान के व्यक्ति के आने की संभावना कतई न हो। इस तरह की जगह मिलना बहुत मुशकिल होता था और आमतौर से इतने झंझट होते थे कि नशे का शौक करने का उत्साह ही खत्म होने लगता था। इस तरह युवावस्था बची रहती थी और प्रौढ़ या अधेड़ होने पर किन्हीं खास मौकों पर थोड़ा बहुत शगल हो जाया करता था। आज स्थिति क्या है? हालत यह है कि ऐसे परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ रही है जिनमें मातापिता या नजदीकी रिश्तेदार जब किसी नशीली वस्तु का सेवन कर रहे होते हैं तो उसमें परिवार के उन सदस्यों को जिनकी उम्र 12-15 से लेकर 20-25 तक की हो सकती है, अपने साथ शामिल कर लेते हैं। उनका तर्क होता है कि हमारे बच्चे हमारे सामने ही थोड़ा बहुत शौक कर लें तो हमें भी उनके बारे में पता रहेगा और वे बाहर नशा करने नहीं जाएगें। अब होता यह है कि परिवार में एक ओर बड़ी उम्र के और दूसरी ओर कम उम्र के लोग यह नशेबाजी करने लगते है। जबकि होना यह चाहिए कि किसी बड़े को ऐसी लत भी हो तो परिवार के बच्चों को इसकी भनक तक नही होनी चाहिए व नशे की वस्तुएं भी बच्चों के हाथ कभी नही मंगवाई जानी चाहिए। अधिकांश बच्चे तो इस केरिंग से ही एक्सपर्ट हो जाते हैं।
 नशा एक ऐसी सामाजिक बुराई है जिसमे सारे अवगुण व दोष भरे है
 नशे से शारारिक , मानसिक ,सामाजिक व आर्थिक नुकसान तो है ही साथ ही समाज में व्याप्त अधिकांश अपराधों में ही प्रत्यक्ष परोक्ष नशे का ही योगदान है।नशे से व्यक्ति के खुद के जीवन पर तो असर पड़ता ही है साथ ही उसका असर सम्पूर्ण परिवार पर भी पड़े बिना नही रहता। नशेड़ी व्यक्ति ज्यादातर परिवार से विमुख हो जाता है जिससे सम्पूर्ण परिवार का भविष्य चौपट हो जाता है।
 अतः हम सब को चाहिये कि जिस तरह हम समाज को संगठित करने शिक्षित करने व अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने का कार्य करते है उसी तरह एक मिशन बना कर समाज से नशे एवम मांशाहार की प्रवृति को खत्म करने का प्रयास भी करना चाहिए।
हमें सीख लेनी चाहिए उन समाजों से जिन्होंने इन बुराइयों से बच कर अपने आप को हर क्षेत्र में अग्रणी बनाया है।
जब इस जगत में शौक शगल खान पान के लिए बहुत अच्छी अच्छी वस्तुएं उपलब्ध है तो क्यों हम इन् बुरी वस्तुओं या शौक शगल को अपनाएं।

शिक्षित हो तो सभ्य भी बनो।

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