. रंग हम जहाँ में क्या क्या मिला गए हार कर लो खुद को सब को जिता गए. .बड़े अजीब से आज-कल मेरे समाज के मेले हैं दिखती तो भीड़ है लेकिन,चलते सब अकेले हैं.!!
01:50जनसंख्या में देश की कुल आबादी के 7 - 8 प्रतिशत वाला कुम्हार महज एक भीड़ है । एक वोटर मात्र है।
एक समय था जब हम अशिक्षित, अविकसित थे। आज परिस्थितियां बहुत बदल चुकी है। समाज में बड़े बड़े उद्योगपती भी है तो बड़े बड़े व्यवसायी , बिल्डर्स, प्रशासनिक अधिकारी, इंजीनियर्स, डॉक्टर्स, एडवोकेट्स,प्रोफेसर्स,टीचर्स, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स भी है तो शासन और सत्ता में भी कई समाज जन है। पर गहराई में जाएँ तो अधिकांश का समाज में कोई सहयोग नही है या कोई भूमिका नही है बल्कि कुछ ने तो इन उपलब्धियों को प्राप्त कर अपने आप को समाज से अलग कर लिया और अपने आप को कुम्हार भी नही मानते और कुछ को समाज से सिर्फ बच्चो के शादी ब्याह तक मतलब है ।
साथियों एक सामाजिक व्यक्ति का तब तक समृद्घ या विकसित होना कोई मायने नही रखता जब तक उसके भाई ,बन्धु, कुटुंब व सगे सम्बन्धी भी समृद्ध या विकसित नही हो जाते।
मेरा समाज के बड़े से बड़े धनाढ्य व्यक्ति को चेलेंज है यदि वह कह दे कि मेरे भाई बन्धु कुटुंब जन और सगे सम्बन्धी सब समृद्ध है। यदि नही तो आपका धनाढ्य या विकसित और आधुनिक होना अधूरा है।
¶मैने अभी दो साल पहले हमारे ही समकक्ष जाती के परिवार में एक विवाह देखा
दरअसल इस परिवार के बच्चे वर्षों से विदेशों में कमा रहे थे और बहुत समृध्द भी हो गए कि ना तो उनकी टक्कर की लड़की का परिवार उनके समाज में मिलता और ना ही उनके स्तर पर उनके खुद के परिवार में कोई है ऐसी स्थिति में उन्होंने लड़के की शादी अन्य जाती में की और परिवार (कुटुंब)का स्तर निम्न होने के कारण दुबई जा कर शादी की जिसमे किसी कुटुंब जन को शामिल नही किया। बहाना बिजा और पासपोर्ट का बना दिया।¶
■दूसरी स्थति
हमारे बहुत से "बड़े अधिकारी" जिन्होंने अभावों में भी अपनी मेहनत और इच्छा शक्ति से पढ़ लिखकर एक मुकाम हासिल किया, अधिकारी बने, अपना विकास किया, बच्चों को अच्छी तामील दिलवा कर सेटल किया उन्हें अब समाज पिछड़ा व अपने स्तर से निचा दिखाई देने लग गया। वे अब मात्र अपने से ऊँचे स्तर वालों की और झुकते है या यूँ कहें उनकी चापलूसी पसन्द करते है। उनकी बराबरी करने या उनकी नजर में "उच्च" बनने पर लाखों खर्च भी कर देते है। जबकि अपने से नीचे वालों पर उससे भी कम खर्च कर ज्यादा सम्मान व आदर पा सकते है और उससे समाज का उद्धार भी हो सकता है।
अगर वे खर्च भी नही करे पर शासन प्रशासन में रहते हुए समाज के लोगों का उचित सहयोग भी
करदे तो कइयों को नोकरी और रोजगार उपलब्ध करवा सकते है।
■तीसरी स्थिति
हमारे उन ऑफिसर्स के बारे में जो शासनिक , प्रशासनिक या प्रबंधकीय सेवाओं से निवृत होते है उनकी यानि बुद्धिजीवी वर्ग की जिनकी जिम्मेदारी बनती है कि बुद्धिजीवी होने के नाते वे समाज का मार्गदर्शन करें अपने शासकीय अनुभव का लाभ अपने समाज को दें जैसा अन्य हमारे समकक्ष जातियों के बड़े अधिकारी कर रहे है (शायद नाम लेने की जरूरत नही) कोई सेवा निवर्ती के बाद राजनीती में आकर मंत्री, राज्य सभा सदस्य बन जाते है तो कई सामाजिक नेता बन कर समाज के लिए संघर्ष करते है।
उसके विपरीत हमारे सेवानिवृत अधिकारी सेवानीवर्ति के बाद गुमनामी में चले जाते है बाजार से शब्जी लाने, घर में बच्चों को खिलाने, कर्मकांड पूजा पाठ और पंडे पुजारियों को पोखने या तीर्थ आदि करने में बची हुई जिंदगी व्यतीत करना पसंद करते है। लाखों रूपये धार्मिक पूजा पाठों के आयोजन में खर्च कर अपनी जिंदगी की कमाई को पंडे पुजारियों पर लुटाना पसन्द करते है। वे भूल जाते है उन्ही चंद पैसों की कमी से उन्होंने जो बचपन में कठिनाइयां झेली वैसी और भी समाज के कई बच्चे झेल रहे है ।
कहने का मतलब है आज जो हमारी दयनीय स्थिति है उसके लिए पूर्णतया हमारा शिक्षित विकसित तबका जिम्मेदार है। हम अपने पिछड़ेपन व राजनीतिक भागीदारी से वंचित रहने का झूठा दोषारोपण राजनीतिक दलों पर करते है आज कोई भी राजनीतिक दल हमको कम करके नही आंक रहा है। राजस्थान में हरीश कुमावत जी ने थोड़ी सी भृकुटि तानी और एक सप्ताह में महारानी को झुकना पड़ा। आज इतना परिवार वादी मुलायम सिंह श्री गायत्री प्रजापति जी को अपनी पार्टी का राष्ट्रीय सचिव नियुक्त करते है तो उसके पीछे उनकी सोच हमारे समाज को खुश करने की है ।
इस स्थिति को समझ कर यदि हमारे समृध्द , शिक्षित, विकसित समाज जन आगे आकर समाज की कमान संभाले तो समाज का उद्धार होने के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है।
वरना जाती छुपाकर आराम से अपना जीवन तो आनंद से गुजार ही रहे है। सेवाकाल में सरकार और उच्च अधिकारियों की ग़ुलामी अब पंडे पुजारियों और घर में औरतों बच्चों की।
सोच बदले तो समाज बदले।
जय प्रजापति
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